एक फूल की चाह में
सियारामशरण गुप्त
प्रस्तुत कविता के द्वारा कवि ने एक गरीब और अछूत पिता और पुत्री के प्रेम तथा बीमार पुत्री का सिर्फ एक देवी के चरणों के फूल का मांगना एव उसे अपनी रोग शैय्या बेटी के लिए न ला पाने की असमर्थता का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है !प्राचीन काल से ही हिन्दू धरम अनेक कुप्रथाओं का प्रचलन रहा है !उस समय में हिन्दू धरम में अछूतों की दशा बड़ी ही दयनीय थी उन्हें न तो समाज में बराबर का दर्जा दिया जाता था
https://youtu.be/lNP6-OMDrhI
और न ही मंदिर में प्रवेश की आज्ञा थी और यदि कोई अछूत मंदिर में प्रवेश कर ले तो उसको न केवल दण्डित किया जाता था बल्कि बहुत पीटा भी जाता था ताकि कोई अन्य अछूत ऐसा दुःसाहस न कर सके !
बहुत रोकता था सुखिया को .................................एक फूल ही दो लाकर !
प्रस्तुत पंक्तियों द्वारा कवि ने ज्वरग्रस्त बेटी का वर्णन किया है जो अपने पिता से देवी माँ के प्रसाद एक फूल लेन को कहती है !
भावार्थ - प्रस्तुत कविता में पुत्री का नाम सुखिया है सुखिया को उसके पिता घर के बाहर खेलने से मना करते है क्योंकि वह एक पल भी घर के भीतर नहीं टिकती और सुखिया के पिता हर समय इसी भय से ग्रसित रहतें है की ज्यादा भर खेलने से वह ज्वर ग्रस्त न हो जाएँ उनका यह भय एक दिन सत्य भी हो जाता है एक दिन जब वह घर आतें है तो अपनी बेटी का शरीर बुखार से जलता हुआ पातें है एक अनजान आशंका से वह बहुत ही भयभीत हो जातें है न जाने उनकी पुत्री भी किस शंका से डरते हुए अपने पिता से कहती है मुझे देवी मंदिर के प्रसाद में अर्पित एक फूल ही लाकर दे दो !
क्रमशः कंठ ......................................................जगमग जागते तारों से !
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों द्वारा एक ज्वारपीड़ित बेटी के पिता की मनोव्यथा को वर्णित किया है जो पल पल अपनी बेटी ज्वर अग्नि से जल रहा है !
भावार्थ - कवि कहते है ज्वर तप्त पुत्री का कंठ क्षीण हो आया तथा उसके सभी अंग ज्वर के कारण शिथिल होने लगे और उसका पिता चिंता मगन बैठा है और तरह तरह के उपायों के बारें में सोच रहा है की कैसे वह अपनी पूरी की इच्छा को पूरा करैं उसे इस तरह बेठे बेठे प्रभात से अलसाई दोपहर हो गयी और कब सूर्य अस्त हो कर डूब गया और कब संध्या हो गयी और सगर अंधकार छा गया इस बात का एहसास उस पिता को नहीं पाया उसे तो चारों और अँधेरा ही अँधेरा नज़र आ रहा था जो उसकी छोटी सी बेटी को निगलने ने आया था रात्रि का विस्तृत आकाश तथा उसमे झलमल करते हुए तारें उसे ऐसे प्रतीत हो रहे थे की गहन अंधकार में अंगारे जल रहे हो और जिसकी तप्त अग्नि से उसकी आँखे झुलस जाती थी !
देख रहा था ......................................उत्सव की धरा !
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने उस पिता की मनोव्यथा का वर्णन किया है जो अपनी वाचाल पुत्री के मुख से कुछ सुनने को उत्कंठित है जो बीमारी के कारण अब बोल भी नहीं पा रही है !
भावार्थ - कवि कहते है की पिता अपनी पुत्री को देख कर यह सोच रहा है की जो कन्या एक क्षण भी नहीं बैठ सकती थी हर समय बोलती रहती थी वो ही आज अत्यधिक ज्वर के कारण अविचल शांति को धारण किये बेसुध पड़ी हुई है पिता उसकी प्यारी प्यारी बातें सुनने के लिए व्याकुल है नहीं कुछ तो वो फिर एक बार अपने मुख से देवी का फूल लाने को उस से कहें !
वो विशाल मंदिर जो एक ऊँचे पर्वत की चोटी पर इस्थित है जिसके ऊपर िस्थत स्वर्ण कलश तथा सरोवर में उपस्तिथ कमल सूरज की रौशनी से चमक रहे है तथा खिल गए है !दिप और धुप के धुआं से मंदिर का पूरा प्रागण ढका हुआ है तथा उसमे हो रहे मन्त्रों उच्चारण तथा शोर गुल से उत्सव जैसा प्रतीत होता है !
भक्त वृन्द ......................................पुष्प दूँ जाकर में !
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में एक अछूत पिता अपनी बीमार पुत्री की इच्छा पूरी करने के लिए वह देवी माँ को फूल अर्पित करने जाता है !
भावार्थ - कवि कहते है की उस विशाल मंदिर के धुप दीप के धुएँ से आछदित प्रागण में भक्त गण मधुर कंठ से प्रसन्न होकर भजन आरती करते हुए माँ की वंदना कर रहे है की पापियों को तारने वाली पापों को नष्ट करने वाली देवी माँ की जय हो यह शब्द सुनकर पिता भी इसका अनुसरण करते हुए गाने लगता है की पीछे से आते हुए धक्के से वह देवी माँ के सामने पहुँच जाता है जहां पुजारी उसके उसके हाथों से पुष्प और प्रसाद लेकर देवी माँ को अर्पित कर उसे प्रसाद और पुष्प देते है जिन्हे अपनी अंजुली में भरकर पिता सोचता है की यह प्रसाद वह अपनी बीमार पुत्री को देकर उसकी अभिलाषा को पूर्ण करेगा !
सिंह पौर .............................................माता की महिमा के भी ?
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने एक बीमार बच्ची के अछूत और मजबूर पिता की मनोव्यथा को व्यक्त किया है जो की मंदिर में प्रसाद चढ़ाने के बावजूद भी अपनी बेटी को देवी माँ का फूल नहीं दे पता है !
भावार्थ - कवि कहते है की माँ का प्रसाद अपनी अंजुली में भरकर वह दालान के निकट भी पहुंच नहीं पाता सहसा शोर मच जाता है की यह अछूत मंदिर में कैसे घुस आया पकड़ो कहीं यह दुष्ट भाग न जाऐं इस ने मंदिर में घुसकर बड़ा ही अनर्थ कर दिया स्वच्छ साफ़ परिधान पहन कर इसने मंदिर में माता को अपने छुआ प्रसाद चढ़ा कर मंदिर तथा माता की गरिमा और पवित्रता को कलुषित कर दिया है किन्तु अछूत पिता सोचता है की मेरा पाप क्या माता की गरिमा से भी बड़ा है जो मेरे छूते ही माँ की पवित्रता समाप्त हो गयी ?
माँ के भक्त ..............................दे न सका में !
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने पिता की मज़बूरी को दर्शया है जो की अपनी बेटी को देवी माँ के चरणों का एक फूल भी नहीं दे पाया !
भावार्थ - कवि कहते है की सभी व्यक्ति उस मजबूर पिता को चरों और से घेरकर पूछते है की माँ के समुख खड़े होकर तथा अपना छुआ प्रसाद चढ़ाकर तुम माँ के गौरव को छोटा क्यों किया उसकी धिरिष्टा के लिए उसे सब लोग उसे बहुत मारते है जिसके कारण देवी माँ का प्रसाद पिता के हाथों से गिर जाता है पिता को इस बात का दुःख होता है की वह अंतिम बार अपनी बेटी को गोद में उठाकर उसे यह प्रसाद नहीं दे पाया !किन्तु कोई उसकी करुण पुकार नहीं सुनता है !
प्रश्न - यहाँ कवि ने कौन से प्रसाद की बात कही है ? पुराने समय में अछूतों के साथ कैसा व्यव्हार होता था?
उत्तर - प्रस्तुत कविता के द्वारा कवि ने एक गरीब और अछूत पिता और पुत्री के प्रेम तथा बीमार पुत्री का सिर्फ एक देवी के चरणों के फूल का मांगना एव उसे अपनी रोग शैय्या बेटी के लिए न ला पाने की असमर्थता का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है !
प्रस्तुत कविता में पुत्री का नाम सुखिया है सुखिया को उसके पिता घर के बाहर खेलने से मना करते है क्योंकि वह एक पल भी घर के भीतर नहीं टिकती और सुखिया के पिता हर समय इसी भय से ग्रसित रहतें है की ज्यादा भर खेलने से वह ज्वर ग्रस्त न हो जाएँ उनका यह भय एक दिन सत्य भी हो जाता है एक दिन जब वह घर आतें है तो अपनी बेटी का शरीर बुखार से जलता हुआ पातें है एक अनजान आशंका से वह बहुत ही भयभीत हो जातें है न जाने उनकी पुत्री भी किस शंका से डरते हुए अपने पिता से कहती है मुझे देवी मंदिर के प्रसाद में अर्पित एक फूल ही लाकर दे दो !
प्राचीन काल से ही हिन्दू धरम अनेक कुप्रथाओं का प्रचलन रहा है !उस समय में हिन्दू धरम में अछूतों की दशा बड़ी ही दयनीय थी उन्हें न तो समाज में बराबर का दर्जा दिया जाता था और न ही मंदिर में प्रवेश की आज्ञा थी और यदि कोई अछूत मंदिर में प्रवेश कर ले तो उसको न केवल दण्डित किया जाता था बल्कि बहुत पीटा भी जाता था ताकि कोई अन्य अछूत ऐसा दुःसाहस न कर सके !
प्रश्न - ' एक फूल की चाह में 'कविता का केंद्रीय भाव लिखो ?
उत्तर - प्रस्तुत कविता के द्वारा कवि सियारामशरण गुप्त ने एक गरीब और अछूत पिता और पुत्री के प्रेम तथा बीमार पुत्री का सिर्फ एक देवी के चरणों के फूल का मांगना एव उसे अपनी रोग शैय्या बेटी के लिए न ला पाने की असमर्थता का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से किया है !
प्रस्तुत कविता में पुत्री का नाम सुखिया है सुखिया को उसके पिता घर के बाहर खेलने से मना करते है क्योंकि वह एक पल भी घर के भीतर नहीं टिकती और सुखिया के पिता हर समय इसी भय से ग्रसित रहतें है की ज्यादा भर खेलने से वह ज्वर ग्रस्त न हो जाएँ उनका यह भय एक दिन सत्य भी हो जाता है एक दिन जब वह घर आतें है तो अपनी बेटी का शरीर बुखार से जलता हुआ पातें है एक अनजान आशंका से वह बहुत ही भयभीत हो जातें है न जाने उनकी पुत्री भी किस शंका से डरते हुए अपने पिता से कहती है मुझे देवी मंदिर के प्रसाद में अर्पित एक फूल ही लाकर दे दो !
वो विशाल मंदिर जो एक ऊँचे पर्वत की चोटी पर इस्थित है उस विशाल मंदिर के धुप दीप के धुएँ से आछदित प्रागण में भक्त गण मधुर कंठ से प्रसन्न होकर भजन आरती करते हुए माँ की वंदना कर रहे है की पापियों को तारने वाली पापों को नष्ट करने वाली देवी माँ की जय हो यह शब्द सुनकर पिता भी इसका अनुसरण करते हुए गाने लगता है की पीछे से आते हुए धक्के से वह देवी माँ के सामने पहुँच जाता है जहां पुजारी उसके उसके हाथों से पुष्प और प्रसाद लेकर देवी माँ को अर्पित कर उसे प्रसाद और पुष्प देते है जिन्हे अपनी अंजुली में भरकर पिता सोचता है की यह प्रसाद वह अपनी बीमार पुत्री को देकर उसकी अभिलाषा को पूर्ण करेगा !माँ का प्रसाद अपनी अंजुली में भरकर वह दालान के निकट भी पहुंच नहीं पाता सहसा शोर मच जाता है की यह अछूत मंदिर में कैसे घुस आया पकड़ो कहीं यह दुष्ट भाग न जाऐं इस ने मंदिर में घुसकर बड़ा ही अनर्थ कर दिया स्वच्छ साफ़ परिधान पहन कर इसने मंदिर में माता को अपने छुआ प्रसाद चढ़ा कर मंदिर तथा माता की गरिमा और पवित्रता को कलुषित कर दिया है किन्तु अछूत पिता सोचता है की मेरा पाप क्या माता की गरिमा से भी बड़ा है जो मेरे छूते ही माँ की पवित्रता समाप्त हो गयी ? सभी व्यक्ति उस मजबूर पिता को चरों और से घेरकर पूछते है की माँ के समुख खड़े होकर तथा अपना छुआ प्रसाद चढ़ाकर तुम माँ के गौरव को छोटा क्यों किया उसकी धिरिष्टा के लिए उसे सब लोग उसे बहुत मारते है जिसके कारण देवी माँ का प्रसाद पिता के हाथों से गिर जाता है पिता को इस बात का दुःख होता है की वह अंतिम बार अपनी बेटी को गोद में उठाकर उसे यह प्रसाद नहीं दे पाया !किन्तु कोई उसकी करुण पुकार नहीं सुनता है !
उद्यमी नर
इतना कुछ है भरा .................................भुजबल से ही पाया है !
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि के अनुसार ईश्वर ने पृथ्वी को सभी सुख , समृद्धि और वैभव से परिपूर्ण किया है और उसे मनुष्य अपनी मेहनत से ही प्राप्त कर सकता है !
भावार्थ - कवि कहते है की ईश्वर ने मनुष्य के लिए प्रकृति द्वारा इस पृथ्वी को सभी सुख , समृद्धि और वैभव से तथा संसाधनों से परिपूर्ण किया है जिसे मनुष्य आसानी से अपनी मेहनत के बलबूते से प्राप्त कर अपने जीवन को सुखी तथा इस धरा को स्वर्ग बना सकता है !
ईश्वर ने इस धरा के गर्भ में इतने संस्धानों से परिपूर्ण किया है और जो नर उद्यमी अथार्थ परिश्रमी होते है वे केवल भाग्य के भरोसे न बैठकर अपने परिश्रम द्वारा उसे प्राप्त कर अपने जीवन को सुखी बना लेते है !
प्रकृति नहीं दर ..............................रतन उगल यही ?
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश द्वारा कवि ने मनुष्य के परिश्रम को ही भाग्य से प्रमुख बताया है !
भावार्थ - कवि कहते है की परिश्रमी मनुष्य के आगे प्रकृति भी अपनी हार मान लेती है परिश्रमी मनुष्य अपने भाग्य के भरोसे न बैठकर पहाड़ चीर कर भी रास्ता बना लेते है उद्यमी नर अपने परिश्रम से भाग्य को भी हरा देते है भाग्यवाद का रोना एक तरह से पाप का आवरण है जो एक शस्त्र के समान है जो एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य का शोषण करवाता है कवि कहते है की कसी भाग्यवादी मनुष्य से ये पूछो की जो रत्न पृथ्वी के गर्भ में है उन्हें निकालने के लिए परिश्रम क्यों करैं वे अपने भाग्य के बल पर पृध्वी से स्वयं ही बैठे बैठे क्यों नहीं निकलवा लेते है ?
उपजाता क्यों ...................................................सुख पाने दो !
प्रसंग - कवि कहते है की भाग्य के भरोसे नहीं मनुष्य अपनी मेहनत के बल पर ही पृथ्वी पर अन्न उपजाता है !
भावार्थ - कवि कहते है की ईश्वर प्रकृति द्वारा पृथ्वी पर जल वर्षा कर अन्न उपजाने का साधन बनाती है किन्तु मनुष्य को स्वयं ही हल चलाकर तथा बीज बोकर अन्न उगना पड़ता है और उसकी फसल पकने तक रक्षा भी अपने कड़े उद्यम द्वारा करनी पड़ती है तभी उसे खाने के लिए अन्न प्राप्त होता है किन्तु कुछ मनुष्य चल प्रपंच द्वारा धन एकत्र करके अपने भाग्य का जोर दिखाते है जो की मात्र एक छलावा है वे दुसरो को ही नहीं अपितु अपने आप को भी धोखा देते है मनुष्य का भाग्य उसकी भुजाओ की शक्ति में है जिसके द्वारा परिश्रम कर वह आकाश पाताल एक कर सकता है ! अतएव संधर्व यही है की पृथ्वी की धन सम्पदा पर अधिकार केवल उद्यमी नर का है !
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश द्वारा कवि ने मनुष्य के परिश्रम को ही भाग्य से प्रमुख बताया है !
भावार्थ - कवि कहते है की परिश्रमी मनुष्य के आगे प्रकृति भी अपनी हार मान लेती है परिश्रमी मनुष्य अपने भाग्य के भरोसे न बैठकर पहाड़ चीर कर भी रास्ता बना लेते है उद्यमी नर अपने परिश्रम से भाग्य को भी हरा देते है भाग्यवाद का रोना एक तरह से पाप का आवरण है जो एक शस्त्र के समान है जो एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य का शोषण करवाता है कवि कहते है की कसी भाग्यवादी मनुष्य से ये पूछो की जो रत्न पृथ्वी के गर्भ में है उन्हें निकालने के लिए परिश्रम क्यों करैं वे अपने भाग्य के बल पर पृध्वी से स्वयं ही बैठे बैठे क्यों नहीं निकलवा लेते है ?
उपजाता क्यों ...................................................सुख पाने दो !
प्रसंग - कवि कहते है की भाग्य के भरोसे नहीं मनुष्य अपनी मेहनत के बल पर ही पृथ्वी पर अन्न उपजाता है !
भावार्थ - कवि कहते है की ईश्वर प्रकृति द्वारा पृथ्वी पर जल वर्षा कर अन्न उपजाने का साधन बनाती है किन्तु मनुष्य को स्वयं ही हल चलाकर तथा बीज बोकर अन्न उगना पड़ता है और उसकी फसल पकने तक रक्षा भी अपने कड़े उद्यम द्वारा करनी पड़ती है तभी उसे खाने के लिए अन्न प्राप्त होता है किन्तु कुछ मनुष्य चल प्रपंच द्वारा धन एकत्र करके अपने भाग्य का जोर दिखाते है जो की मात्र एक छलावा है वे दुसरो को ही नहीं अपितु अपने आप को भी धोखा देते है मनुष्य का भाग्य उसकी भुजाओ की शक्ति में है जिसके द्वारा परिश्रम कर वह आकाश पाताल एक कर सकता है ! अतएव संधर्व यही है की पृथ्वी की धन सम्पदा पर अधिकार केवल उद्यमी नर का है !
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